''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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ग़ज़ल / हर किसी के लिए ही दुआ मैं करूँ........

>> Tuesday, September 20, 2011

यह रचना फेसबुक पर भी दी है, मगर लगा, अपने प्रिय पाठकों-मित्रों के लिए ब्लॉग में भी देनी चाहिए. इसलिए...बताएं, कैसा प्रयास है? 
 
ज़िंदगी का जो हक है अदा मैं करूँ
हर किसी के लिए ही दुआ मैं करूँ
 
ये अन्धेरा मिटाने दिया मैं बनूँ
काम अक्सर ही ऐसे खुदा मैं करूँ
 
काम हो जाये मकसद हमारा यही
तू अगर कर न पाए बता मैं करूँ
 
भूखा-प्यासा न होवे पड़ोसी मेरा
रोज़ खाने से पहले पता मैं करूँ
 
उसकी फितरत मुझे अब पता चल गई
वो करे है ज़फ़ा तो वफ़ा मैं करूँ
 
जो यहाँ गिर पड़े मैं उठाऊँ उन्हें
आदमी हूँ अगर यह सदा मैं करूँ
 
प्यार करना हमेशा लगे है सज़ा
किन्तु पंकज यही फिर खता मैं करूँ

17 टिप्पणियाँ:

Anupama Tripathi September 20, 2011 at 7:09 AM  

bahut sunder abhivyakti...

सागर September 20, 2011 at 7:15 AM  

ज़िंदगी का जो हक है अदा मैं करूँ
हर किसी के लिए ही दुआ मैं करूँ... bhaut khubsurat panktiya....

Kailash Sharma September 20, 2011 at 7:45 AM  

काम हो जाये मकसद हमारा यही
तू अगर कर न पाए बता मैं करूँ

भूखा-प्यासा न होवे पड़ोसी मेरा
रोज़ खाने से पहले पता मैं करूँ

....क्या सुन्दर भाव हैं ! लाज़वाब अभिव्यक्ति..

shikha varshney September 20, 2011 at 8:11 AM  

भूखा-प्यासा न होवे पड़ोसी मेरा
रोज़ खाने से पहले पता मैं करूँ
बेहतरीन सोच.

Dr (Miss) Sharad Singh September 20, 2011 at 8:36 AM  

ज़िंदगी का जो हक है अदा मैं करूँ
हर किसी के लिए ही दुआ मैं करूँ

आस्था और विश्वास से ओतप्रोत सुन्दर ग़ज़ल...

DR. ANWER JAMAL September 20, 2011 at 8:49 AM  

Waah ...

हवा से उलझे कभी सायों से लड़े हैं लोग
बहुत अज़ीम हैं यारों बहुत बड़े हैं लोग

इसी तरह से बुझे जिस्म जल उठें शायद
सुलगती रेत पे ये सोच कर पड़े हैं लोग

Dr Varsha Singh September 20, 2011 at 9:41 AM  

भूखा-प्यासा न होवे पड़ोसी मेरा
रोज़ खाने से पहले पता मैं करूँ


वाह क्या बात है ! बहुत सुन्दर !
पूरी ग़ज़ल उम्दा है !

संगीता स्वरुप ( गीत ) September 20, 2011 at 11:18 AM  

उसकी फितरत मुझे अब पता चल गई
वो करे है ज़फ़ा तो वफ़ा मैं करूँ

बहुत सुन्दर भाव संजोये अच्छी गज़ल

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ September 20, 2011 at 12:20 PM  

बहुत सुन्दर रचना

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') September 21, 2011 at 4:47 AM  

ये अन्धेरा मिटाने दिया मैं बनूँ
काम अक्सर ही ऐसे खुदा मैं करूँ

बड़ी मुक़द्दस सी ग़ज़ल है भईया...

"आपकी ये तमन्ना सभीजन की हो
आपकी ही तरहा ये दुआ मैं करूँ"

सादर प्रणाम....

Pallavi saxena September 21, 2011 at 7:38 AM  

वाह !!! बेहतरीन अभिव्यक्ति सर... बहुत बढ़िया
कुछ लोग हैं जिनकी टिप्पणियों के बिना मुझे हमेशा मेरी पोस्ट अधूरी सी लगती है आप भी उन्हीं में से एक हो समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है साथ ही आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी की प्रतीक्षा भी धन्यवाद.... :)
http://mhare-anubhav.blogspot.com/

सदा September 21, 2011 at 10:42 PM  

काम हो जाये मकसद हमारा यही
तू अगर कर न पाए बता मैं करूँ

भूखा-प्यासा न होवे पड़ोसी मेरा
रोज़ खाने से पहले पता मैं करूँ
वाह ...बहुत ही बढि़या ।

अनामिका की सदायें ...... September 22, 2011 at 7:59 AM  

sabki soch aisi ban jaye to swarg door nahi isi dharti par hai.

sunder abhivyakti.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) September 22, 2011 at 9:08 AM  

भूखा-प्यासा न होवे पड़ोसी मेरा
रोज़ खाने से पहले पता मैं करूँ
बेहतरीन.

रंजना September 22, 2011 at 9:12 AM  

बहुत बहुत सुन्दर...

Lalit Mishra September 24, 2011 at 3:56 AM  

पहिली बार आज मौका मिला है ब्लॉग में आने का... आनंद आ गया आपकी ग़ज़ल पढ़कर जिसमें बड़ी सादगी से आपने आम आदमी के दर्द निवारण के लिए इंसान को अपने फ़र्ज़ व दायित्व बोध का स्मरण कराया है...
आभार...

विभूति" September 24, 2011 at 8:15 PM  

खुबसूरत ग़ज़ल....

सुनिए गिरीश पंकज को

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