''सद्भावना दर्पण'

दिल्ली, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में पुरस्कृत ''सद्भावना दर्पण भारत की लोकप्रिय अनुवाद-पत्रिका है. इसमें भारत एवं विश्व की भाषाओँ एवं बोलियों में भी लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता है.गिरीश पंकज के सम्पादन में पिछले 20 वर्षों से प्रकाशित ''सद्भावना दर्पण'' पढ़ने के लिये अनुवाद-साहित्य में रूचि रखने वाले साथी शुल्क भेज सकते है. .वार्षिक100 रूपए, द्वैवार्षिक- 200 रूपए. ड्राफ्ट या मनीआर्डर के जरिये ही शुल्क भेजें. संपर्क- 28 fst floor, ekatm parisar, rajbandha maidan रायपुर-४९२००१ (छत्तीसगढ़)
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लाख सताओ, नहीं मरूंगा/ इस पंकज में जान बहुत है.....

>> Thursday, April 12, 2012

माना के धनवान बहुत है
इसका उसे गुमान बहुत है

नम्र बनो ऐ प्यारे भाई 
जान गए के ज्ञान बहुत है

किसको जा कर शीश झुकाएँ 
 भीतर का भगवान् बहुत है

झगड़े बढ़ जाते है क्योंकि
 अनचाहा अज्ञान बहुत है

मेहनत के धन से ही करना
थोड़ा-सा भी दान बहुत है

मुझे देख वो ना मुसकाया 
इतना ही अपमान बहुत है

स्वाभिमान भी कोई चीज़ है
भूखे हैं पर शान बहुत है

गाना दिल का दर्द भागा दे
कैसी भी हो तान बहुत है

लाख सताओ, नहीं मरूंगा
इस पंकज में जान बहुत है

9 टिप्पणियाँ:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ April 12, 2012 at 7:34 AM  

बहुत सुन्दर लिखा है आपने सर!
इसे भी देखें-

उल्फ़त का असर देखेंगे!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया April 12, 2012 at 9:05 AM  

लाख सताओ, नहीं मरूंगा
इस पंकज में जान बहुत है

जानदार अनुपम भाव लिए सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट .

MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" April 12, 2012 at 10:58 AM  

लाख सताओ, नहीं मरूंगा
इस पंकज में जान बaहुत है...bahut hee sunder panktiyan..sadar badhayee aaur
amantran ke sath

शिवम् मिश्रा April 12, 2012 at 11:43 AM  

इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र -
बस एक छोटी सी गुज़ारिश - ब्लॉग बुलेटिन

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार April 12, 2012 at 12:41 PM  




किसको जा'कर शीश झुकाएं
भीतर का भगवान बहुत है


वाह वाह !
सौ शे'रों पर भारी शे'र
आदरणीय गिरीश भाईजी
प्रणाम !

जवाब नहीं आपका …
इन दिनों आ रही आपकी तमाम रचनाएं कमाल की हैं …
फ़िदा हो गया इस ग़ज़ल के एक एक शे'र पर …
मुझे देख वो ना मुसकाया
इतना ही अपमान बहुत है

स्वाभिमान भी कोई चीज़ है
भूखे हैं पर शान बहुत है


क्या ता'रीफ़ करूं , कैसे करूं … शब्द ही नहीं मिल रहे आज तो … … …

गाना दिल का दर्द भगा दे
कैसी भी हो तान बहुत है

कई बार अनुभव किया है यह तो…

सलाम ! सलाम ! सलाम !

शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार

विभूति" April 12, 2012 at 8:10 PM  

भावो को रचना में सजाया है आपने.....

Shah Nawaz April 12, 2012 at 8:30 PM  

वाह गिरीश जी! आपकी यह ग़ज़ल तो बहुत ही बढ़िया लगी...

Unknown April 17, 2012 at 10:11 PM  

Aadarniy Pankaj jii,

Aaapkii pratyek rachnaa ek se badh kar ek hotii hai aur main aapki prtyek rachnaa ko pasand kartaa hun. Meraa betaa bhii. Maine iskaa zikra pichale dino jab aap aadarniy J.R.Soni jii ke saath mere ghar padhaare the, kiyaa bhii thaa aur aapne usii kii pharmaaish par Subah mohabbat shaam mohabbat sunaaii bhii thii.
Harihar Vaishnav

समयचक्र April 21, 2012 at 2:56 AM  

नम्र बनो ऐ प्यारे भाई
जान गए के ज्ञान बहुत है

बहुत सुन्दर...

सुनिए गिरीश पंकज को

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