गीत/ सत्ता का गुणगान नहीं जो लिख पाया....
>> Wednesday, December 5, 2012
।। गीत।।
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सत्ता का गुणगान नहीं जो लिख पाया।
क्या करता कि कभी नहीं वो बिक पाया। ।
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बाजारों में लोग बड़े आतुर दिखते,
जिसको देखो चौराहे पर खडा हुआ।
मिल जाएँ कुछ टुकडे तो वे लपकेंगे,
यहाँ आदमी बिकने पर है अड़ा हुआ।
तना रहा इक गर्वीला मस्तक फिर भी,
चाहा था लोगो ने पर ना झुक पाया।
सत्ता का गुणगान कभी न लिख पाया।।
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यहाँ लगी है स्पर्धाएं बिकने की अब,
भाव लगा कर लोग हजारों बैठे हैं।
खुद्दारी में जीने वाले को ताने,
'देखो, साहब जी ये कैसे ऐठे हैं।'
फिर भी मैं तो केवल अपनी राह चला,
मिले प्रलोभन लाख कभी ना रुक पाया।
सत्ता का गुणगान कभी ना लिख पाया।।
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अब है ये चालाक-समय कुछ समझो भी,
बिना बिके अब धन अर्जन न हो पाए।
इसीलिए हैं भीड़ बड़ी बाज़ारों में,
जो धक्का दे अब वो आगे बढ़ जाए ।
इक पागल था खडा रहा बिलकुल पीछे,
बेचारा इस 'आंधी' में ना टिक पाया।
सत्ता का गुणगान कभी न लिख पाया।।
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सत्ता का गुणगान नहीं जो लिख पाया।
क्या करता कि कभी नहीं वो बिक पाया। ।
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बाजारों में लोग बड़े आतुर दिखते,
जिसको देखो चौराहे पर खडा हुआ।
मिल जाएँ कुछ टुकडे तो वे लपकेंगे,
यहाँ आदमी बिकने पर है अड़ा हुआ।
तना रहा इक गर्वीला मस्तक फिर भी,
चाहा था लोगो ने पर ना झुक पाया।
सत्ता का गुणगान कभी न लिख पाया।।
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यहाँ लगी है स्पर्धाएं बिकने की अब,
भाव लगा कर लोग हजारों बैठे हैं।
खुद्दारी में जीने वाले को ताने,
'देखो, साहब जी ये कैसे ऐठे हैं।'
फिर भी मैं तो केवल अपनी राह चला,
मिले प्रलोभन लाख कभी ना रुक पाया।
सत्ता का गुणगान कभी ना लिख पाया।।
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अब है ये चालाक-समय कुछ समझो भी,
बिना बिके अब धन अर्जन न हो पाए।
इसीलिए हैं भीड़ बड़ी बाज़ारों में,
जो धक्का दे अब वो आगे बढ़ जाए ।
इक पागल था खडा रहा बिलकुल पीछे,
बेचारा इस 'आंधी' में ना टिक पाया।
सत्ता का गुणगान कभी न लिख पाया।।
5 टिप्पणियाँ:
लाजवाब....
जो गुणगान नहीं लिख पाए , उसका टिकना मुश्किल ...
वर्तमान सन्दर्भ में सटीक विचार !
बहुत सुंदर वर्तमान की सटीक प्रस्तुति,,
recent post: बात न करो,
♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
♥♥नव वर्ष मंगलमय हो !♥♥
♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥
तना रहा इक गर्वीला मस्तक फिर भी,
चाहा था लोगो ने पर ना झुक पाया।
सत्ता का गुणगान कभी न लिख पाया।।
वाह ! वाऽह ! वाऽऽह !
ओजपूर्ण शब्द !
ख़ूबसूरत और सार्थक रचना !
आदरणीय गिरीश पंकज जी
जवाब नहीं आपका !
...लेकिन आजकल ब्लॉग पर रचनाएं कम क्यों लगा रहे हैं ?
नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
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यू ट्यूब पर आपको सुन कर अच्छा लगा !
#
जीने का सामान मिल गया
पत्थर में भगवान मिल गया
#
सुबह मुहब्बत , शाम मुहब्बत
अपना तो है काम मुहब्बत
#
तुम जाओ तीरथ को यारों
अपने चारों धाम मुहब्बत
आऽऽहा हाऽऽऽ हऽऽऽ !
क्या बात है गिरीश भाईजी !
बहुत बढ़िया !
दोनों ग़ज़लें शानदार हैं ...
पिछली जनवरी में आपको हमारे यहां रूबरू सुनने के साल भर बाद
आज आपको पढ़ते हुए देख कर बहुत अच्छा लग रहा है ।
बहुत बहुत शुभकामनाएं !
आजकल ब्लॉग पर क्यों नहीं ?
... न हमारे न अपने ही !!
:(
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