न जाने सोच ये गंदी कहाँ से वह उठा लाया
किसी को टूटते देखा उसे बेहद मज़ा आयाकिसी को दर्द दे करके न जाने क्या मिला करता
मगर बहुतों के हिस्से में यही है एक सरमाया
जो नफ़रत से भरा रहता है उससे कौन ये पूछे
कभी तू ज़िंदगी में नेक कोई काम कर पाया
मेरे आंसू बहे जब भी नहीं था सामने कोई
अकेले में कभी ' गीता' कभी 'मानस' को दोहराया
ज़माने में कहाँ कब कौन कितना साथ देता है
अंधेरा देख कर खुद भाग जाता है तेरा साया
ये दौलत इक छलावा है मगर समझा नहीं कोई
सफर जब आखिरी हो तो नहीं रहती कोई माया
ये दौलत इक छलावा है मगर समझा नहीं कोई
ReplyDeleteसफर जब आखिरी हो तो नहीं रहती कोई माया
.... सच कहा आपने अंत में कुछ नहीं रहता पास हमारे और दौलत माया मोह सब धरा रह जाता है। ।
ज़माने में कहाँ कब कौन कितना साथ देता है
ReplyDeleteअंधेरा देख कर खुद भाग जाता है तेरा साया
...वाह..बहुत उम्दा ग़ज़ल...सभी अशआर बहुत सटीक और सार्थक..
कल 11/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
मेरे आंसू बहे जब भी नहीं था सामने कोई
ReplyDeleteअकेले में कभी ' गीता' कभी 'मानस' को दोहराया...वाह..बहुत सुंदर