Tuesday, April 19, 2022

ग़ज़ल

याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए

माँ-बाप भी देव हमारे चलते- फिरते मंदिर हैं
चार किताबें पढ़ के उनको शीश झुकाना भूल गए

बैठ किनारे सोच रहे हैं पार भला उतरें कैसे 
क्योंके हम लहरों से जाकर अब टकराना भूल गए

जाने क्या पाने की खातिर भटक रहे हैं हम दर-दर पास रखा संतोष हमारे वही ख़ज़ाना भूल गए

ऐसे खुद में रम गए हम तो दौलत पाकर दुनिया में
घर में हो कर क़ैद कहीं हम आना-जाना भूल गए


9 comments:

  1. आपकी लिखी रचना मंगलवार 16 मई 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. ऐसे खुद में रम गए हम तो दौलत पाकर दुनिया में
    घर में हो कर क़ैद कहीं हम आना-जाना भूल गए.. वाह!गज़ब सर 👌

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  3. याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
    देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए
    वाह…बहुत खूब !

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  4. जाने क्या पाने की खातिर भटक रहे हैं हम दर-दर पास रखा संतोष हमारे वही ख़ज़ाना भूल गए
    वाह!!!
    लाजवाब गजल।

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  5. बहुत सुंदर रचना ।
    प्रणाम
    सादर।

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  6. बहुत ही बढ़िया सृजन।

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  7. याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
    देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए
    वाह…बहुत सुन्दर रचना!

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    1. याद रहा अधिकार मगर हम फ़र्ज़ निभाना भूल गए
      देश हमारा धरती अपनी, यही तराना भूल गए
      माँ-बाप भी देव हमारे चलते- फिरते मंदिर हैं
      चार किताबें पढ़ के उनको शीश झुकाना भूल गए!!
      सरल और सहज अभिव्यक्ति जो मन को छू गई।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आदरणीय पंकज जी 🙏🙏🌺🌺

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