''सद्भावना दर्पण'

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मुस्कान दिवस पर विशेष

>> Friday, October 7, 2022


शैतानों की बस्ती में इनसान बचा कर रखना है
अपने भीतर अपना इक भगवान बचा कर रखना है

चारों और रुलाने वाली हालत है फिर भी हमको
अपने अधरों पर थोड़ी मुस्कान बचा कर रखना है।

आकर हमलावरों ने अपना लूट लिया सारा वैभव 
सावधान रहना है सारा ज्ञान बचा कर रखना है

कुछ पाने की खातिर नीचे गिर जाएं यह ठीक नहीं
जैसे भी हम हैं खुद का सम्मान बचा कर रखना है

खुद्दारी के साथ क़लम औ' दो सूखी रोटी पंकज 
जीने का बस यह थोड़ा सामान बचा कर रखना है

@ गिरीश पंकज

6 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) October 8, 2022 at 10:09 PM  

चारों और रुलाने वाली हालत है फिर भी हमको
अपने अधरों पर थोड़ी मुस्कान बचा कर रखना है।
सच को कहती सुंदर रचना । प्रेरक ।

रंजू भाटिया October 9, 2022 at 11:09 PM  

मुस्कान जरूरी है। सुंदर रचना

जिज्ञासा सिंह October 9, 2022 at 11:56 PM  

खुद्दारी के साथ क़लम औ' दो सूखी रोटी पंकज
जीने का बस यह थोड़ा सामान बचा कर रखना है
.. सकारात्मक भाव से परिपूर्ण प्रेरक रचना।

shikha varshney October 10, 2022 at 3:06 AM  

आह हां! शानदार ग़ज़ल.

Sweta sinha October 10, 2022 at 6:39 AM  

बहुत अच्छी गज़ल आदरणीय सर।
हर बंध लाज़वाब है।
प्रणाम
सादर।

Sudha Devrani October 10, 2022 at 9:54 AM  

वाह!!!!
बहुत ही लाजवाब गजल ।

सुनिए गिरीश पंकज को

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