नवगीत/ फिर भी जीते रहे ज़िंदगी, कभी न टूटे हम..
>> Monday, July 26, 2010
कुछ दिनों से ऐसी कुछ अस्त-व्यस्तता थी, कि मैं कुछ पोस्ट ही नहीं कर पाया. आज कुछ समय मिला, तो हाजिर हूँ अपने एक नवगीत के साथ. आशा है, पसंद आएगा.
नवगीत
मिली विफलताएँ कुछ ज्यादा,
उपलब्धि है कम.
फिर भी जीते रहे ज़िंदगी,
कभी न टूटे हम..
हमने देखा गूंगे-बहरे,
इधर-उधर स्थापित.
और बोलने वाले थे जो,
हुए सदा विस्थापित.
जिनको हक मिलना था उनको,
नहीं मिला हरदम...
लोग बहुत चालाक हो गए,
समझ न पाए आप.
वक्त पड़ा तो फ़ौरन बोले,
गधा हमारा बाप.
चाटुकार हो गयी हवाएँ,
नाच रहीं छमछम.
स्वाभिमान खुदकशी कर गया,
जीना हुआ फिजूल.
काँटों के हिस्से में आये,
सुन्दर, कोमल फूल.
चरणों पर गिरने वाले ही,
अब हैं सर्वोत्तम...
जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहाँ पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है,
उजियारे का गम...
12 टिप्पणियाँ:
हमने देखा गूंगे-बहरे,
इधर-उधर स्थापित.
और बोलने वाले थे जो,
हुए सदा विस्थापित.
जिनको हक मिलना था उनको,
नहीं मिला हरदम...
....bahut sundar evam saarthak geet.badhaai.
अरे वाह, गूंगे बहरे वाली बात अच्छी लगी ।
जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहाँ पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है,
उजियारे का गम...
बस यही तो गम है मगर फिर भी वो सुबह कभी तो आयेगी।
कभी तो रौशनी आएगी.....बहुत सुन्दर भाव गीत
बहुत बढ़िया और सार्थक रचना ! आभार !
आपकी यह प्रस्तुति कल २८-७-२०१० बुधवार को चर्चा मंच पर है....आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा ..
http://charchamanch.blogspot.com/
कमाल की रचना चाचा जी....कुछ दिन ग़ज़ल पेश करने के बाद आज भी गीत के रूप में एक नायाब रचना....सुंदर गीत..बधाई चाचा जी
गिरीश भाई बहुत अच्छी रचना है, एक बन्द मेरी ओर से जोड़ लीजिये----
कार पड़ोसी ले आया है
अब जीना दूभर
बीवी कहती तुम भी लाओ
हाँ, कर्जा लेकर
खड़ी रहेगी दरवाजे पर
चौपहिया हरदम.....
गिरीश पंकज जी
नमस्कार !
दोहे , कुंडलियां , गीत , ग़ज़ल , … और अब इनके साथ साथ नवगीत !
यह है मां सरस्वती का अपने वरद - पुत्रों को उपहार !
वरना डींगें हांकते पाए जाने वाले छद्म रचनाकारों को दो दो , तीन तीन महीनों में भी रो - पिट कर मात्र चार पंक्तियां तुकबंदी की मिलती हैं , और उसके दम पर भी वे गाल बजाते पाए जाते हैं ।
आपने साबित कर दिया कि मात्र पंकज कहलाना ही कमल हो जाना नहीं होता । कमल होने के लिए साधना द्वारा वरदा का वरदान पाना होता है ।
प्रसंगवश कह गया यह तो …वरना मेरे मन की बात तो आपका पूरा नवगीत स्वयं कह रहा है …
हमने देखा गूंगे-बहरे,
इधर-उधर स्थापित.
और बोलने वाले थे जो,
हुए सदा विस्थापित.
चाटुकार हो गयी हवाएं,
नाच रहीं छमछम.
चरणों पर गिरने वाले ही,
अब हैं सर्वोत्तम...
जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहां पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है
बहुत अच्छा नवगीत है भाईजी !
मुक्त हृदय से बधाइयां !
इस रंग को जारी रखें …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
भईया प्रणाम, आपकी इस खूबसूरत रचना पर आपकी ही शैली में टीप लिखने की इच्छा हो रही है.. (सूरज के समक्ष दीप जलाने जैसी हिमाक़त के लिए मुआफी की दरख्वास्त सहित)
"आपकी सब सुन्दर रचना हैं,
साहित्य जगत की शान
किसमें ताक़त जो कर पाए,
स्याही का अपमान.
सूर्य गगन में, धरा में सर्जक,
हारा दोनों से तम... "
जाने कब होगा सर्जक का,
बिन बोले सम्मान.
अभी यहाँ पर कदम-कदम पर,
बस केवल अपमान.
अंधियारे का अभिनन्दन है,
उजियारे का गम...
achchha laga
भाई पंकज जी लाजवाब नवगीत है । मैंने संजोकर रख लिया है ।
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