''सद्भावना दर्पण'

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तेज़ाब से जली पाँच कविताऍ

>> Thursday, May 8, 2014



(१)
तेज़ाब से जली लड़की / शर्मिन्दा है
ख़ुद पर नही / फेंकने वाले शख्स पर


कि वह अचानक दानव कैसे बन गया
कि कलंक क्यों दे गया समाज के माथे पर
लड़की / जब भी निहारती है दर्पण
भारत माँ की तरह दिखता है / एक और चेहरा
फिर वह मिट्टी से चिपट कर रो पड़ती है
(२)
तेज़ाब शर्मिन्दा है
अपने होने पर
घबराता जाता है वह
जब किसी अमानुष हाथो मे आता है
फेंके जाने के पहले तेज़ाब
हो जाता है पानी-पानी
(३)
तेज़ाब अब
खतरनाक पानी नहीं
इस मरती हुयी सदी की
झुलसी हुई कहानी है
(४)
तेज़ाब
चेहरे पर फेंके जाने से पहले
उस आत्मा को झुलसाता है
जिसे प्रभु
पूरे विश्वास के साथ
मनुष्य बनाता है
कभी-कभी भगवान भी
होता है शर्मिन्दा
अपने निर्णय पर
(५)
तेज़ाब फेंकने वाले को
फ़ांसी मत दो
मारो-पीटो भी मत
बस तेज़ाब ले कर खड़े हो जाओ
उस के परिजनों के  सामने
शायद..... शायद
मर ही जाये वो अपने आप

14 टिप्पणियाँ:

shikha varshney May 9, 2014 at 4:20 AM  

उफ़ ... दूसरी वाली क्षणिका सबसे ज्यादा प्रभावशाली लगी.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने May 9, 2014 at 7:36 PM  

इतने सारे चेहरे एक तेज़ाब के और सब के सब झुलसे हुये... ऐतम बम बनाने वाले ने कब सोचा था कि हिरोशिमा और नागासाकी इसके परिणाम होंगे.. तेज़ाब का पानी-पानी होना बहुत शानदार कथन लगा!! सारी की सारी क्षणिकाएँ विशिष्ट हैं!!

Asha Joglekar May 10, 2014 at 6:34 AM  

तेज़ाब फेंकने वाले को
फ़ांसी मत दो
मारो-पीटो भी मत
बस तेज़ाब ले कर खड़े हो जाओ
उसकी बहन या माँ के सामने
शायद..... शायद
मर ही जाये वो अपने आप

बहुत ही दर्दभरी क्षणिकाएं।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ May 10, 2014 at 9:16 AM  

सभी क्षणिकाएं बहुत ही मार्मिक हैं ।

Anju (Anu) Chaudhary May 10, 2014 at 10:33 AM  

सच में आज तेजाब खुद पर ही शर्मसार है

Anju (Anu) Chaudhary May 10, 2014 at 10:33 AM  

सच में आज तेजाब खुद पर ही शर्मसार है

प्रतिभा सक्सेना May 10, 2014 at 12:59 PM  

झकझोर देती है ऐसी अभिव्यक्ति पंकज जी,बस एक बात खटकी.
तेज़ाब फेंकनेवाले को असलियत बताने के लिए माँ-बहन ,चाहे उसी की हों ,सामने खड़ा करना जरूरी है?एक बार और नारी दाँव पर , शरीर चाहे न झुलसे उन नारियों की आत्मा तक दग्ध हो जाएगी.
उस पातकी को दंड देने का माध्यम फिर स्त्री?

girish pankaj May 10, 2014 at 10:39 PM  

प्रतिभाजी, आपके सुझाव को मान कर कविता मे संशोधन किया है

प्रतिभा सक्सेना May 10, 2014 at 11:06 PM  

आभारी हूँ गिरीश जी!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया May 11, 2014 at 12:01 AM  
This comment has been removed by the author.
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया May 11, 2014 at 12:04 AM  

बहुत ही सुंदर लाजबाब क्षणिकाए ...!
मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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मेरा मन पंछी सा May 11, 2014 at 8:06 AM  

बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना....

Dayanand Arya July 22, 2014 at 9:16 PM  

सामने दर्पण में एक चेहरा दिखता है - भारत माँ का - झुलसा हुआ सा , शर्मसार ।

Rs Diwraya October 1, 2014 at 6:19 AM  

बहुत ही सुन्दर और रहिस्य से भरी पँक्तिया
आपना ब्लॉगसफर आपका ब्लॉग ऍग्रीगेटरपर लगाया गया हैँ । यहाँ पधारै

सुनिए गिरीश पंकज को

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