नई ग़ज़ल / हर सिम्त खुल रहे हैं बदन देख रहे हैं
>> Sunday, July 31, 2011
मत पूछिए हम कितना पतन देख रहे हैं
हर सिम्त खुल रहे हैं बदन देख रहे हैं
ये कैसी नयी सभ्यता है कैसा नया दौर?
कम हो रहे लोगों के वसन देख रहे हैं
पहले हजारों लोग मरे देश के लिए
अब उनको खोजता है वतन देख रहे हैं
इंसान हूँ अन्याय को सहने की हद भी है
कब तक के कर सकेंगे सहन देख रहे हैं
अपने कहे से रोज मुकर जाए सियासत
पल-पल में बदलते हैं कथन देख रहे हैं
रिश्ते न टूट जाएँ वो खुदगर्ज़ हैं बड़े
कोशिश में हमीं कर के जतन देख रहे हैं
विश्वास था माली इसे महकाएगा ज़रूर
लेकिन यहाँ उजड़ा ये चमन देख रहे हैं
ये 'तंत्र' बड़े प्यार से सौंपा था हमीं ने
उन हाथों में अपने लिए 'गन' देख रहे हैं
हमने जिन्हें उठा के बिठाया था फलक पर
वे हमको दिखाते हैं ठसन देख रहे हैं
सूरज न जाने कब इधर आएगा क्या पता
फिलहाल रात है ये गहन देख रहे हैं
जिसके लिए हम जान लुटाएं, दगा करे
धोखाधड़ी है अब तो चलन देख रहे हैं
पापों का हाल ये है इधर पूछ न पंकज
पापी ही रोज करते हवन देख रहे हैं
14 टिप्पणियाँ:
मेरी एक ग़जल का एक मिसरा है- अबके और आदिमों के बीच फ़र्क बेमानी, जिस्म से हट रहे बनियान कहा करते हैं’
आपने सामयिक फूहड़पन पर बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है...बहुत-बहुत आभार...आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 01-08-2011 को चर्चामंच http://charchamanch.blogspot.com/ पर सोमवासरीय चर्चा में भी होगी। सूचनार्थ
पहले हजारों लोग मरे देश के लिए
अब उनको खोजता है वतन देख रहे हैं
हक़ीकत बयां हुई है, इस शानदार ग़ज़ल में।
विश्वास था माली इसे महकाएगा ज़रूर
लेकिन यहाँ उजड़ा ये चमन देख रहे हैं
देश के आम आदमी की दर्दनांक दास्ताँ की भाव भरी रचना .
रिश्ते न टूट जाएँ वो खुदगर्ज़ हैं बड़े
कोशिश में हमीं कर के जतन देख रहे हैं
हर शेर उम्दा....एक से बढकर एक......
रिश्ते न टूट जाएँ वो खुदगर्ज़ हैं बड़े
कोशिश में हमीं कर के जतन देख रहे हैं
खूबसूरत गजल. आभार.
सादर,
डोरोथी.
भैया सादर प्रणाम.
इस बेहतरीन ग़ज़ल पर कुछ कहने को शब्द नहीं....
सादर...
आज 01- 08 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
इंसान हूँ अन्याय को सहने की हद भी है
कब तक के कर सकेंगे सहन देख रहे हैं
सूरज न जाने कब इधर आएगा क्या पता
फिलहाल रात है ये गहन देख रहे हैं
bemisaal
bahut vicharatmak prastuti.ek laajabab ghazal.
बेहतरीन ......
ये 'तंत्र' बड़े प्यार से सौंपा था हमीं ने
उन हाथों में अपने लिए 'गन' देख रहे हैं
हमने जिन्हें उठा के बिठाया था फलक पर
वे हमको दिखाते हैं ठसन देख रहे हैं
सटीक बात कहती खूबसूरत गज़ल
पाप ही रोज करते हवन देख रहे हैं ....
एक एक पंक्ति सत्य का आईना दिखाती है !
ये 'तंत्र' बड़े प्यार से सौंपा था हमीं ने
उन हाथों में अपने लिए 'गन' देख रहे हैं.
वाह !! आईना देख रहे हैं...
आपकी ग़ज़ल पर मेरी दो पंक्तियाँ सादर -
"दो-चार क्या यहाँ तो गए साठ बरस से ।
सोने गढ़ी चिड़िया का गबन देख रहे हैं॥ "
Post a Comment