नई ग़ज़ल / जुबां खामोश रहती है इशारे बोल उठते हैं.....
>> Wednesday, August 31, 2011
जुबां खामोश रहती है इशारे बोल उठते हैं
हम अक्सर बस इसी के ही सहारे बोल उठते हैं
रखोगे कब तलक बंदिश में सच को पूछता हूँ मैं
हमारे होंठ तो ये बिन पुकारे बोल उठते हैं
हमें अपनों से क्या लेना कहाँ ये काम आते हैं
मगर जो गैर होते हैं वो प्यारे बोल उठते है
तुम्हारा हाल कैसा है तुम्हारा मूड क्या कहता
रहो तुम मौन लेकिन ये नज़ारे बोल उठते हैं
यहाँ वे लोग दण्डित हो रहे जो सत्य कहते हैं
जो दिखता है हकीकत में बेचारे बोल उठते हैं
भंवर में फंस न जाना तुम भले तैराक हो पंकज
नदी खामोश रहती है किनारे बोल उठते हैं
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और चलते-चलते आज के हालात पर एक शेर
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बहुत खामोश रहते है यहाँ लाखों मगर सच है
समूचा देश जागे जब ''हजारे'' बोल उठते हैं
9 टिप्पणियाँ:
यहाँ वे लोग दण्डित हो रहे जो सत्य कहते हैं
जो दिखता है हकीकत में बेचारे बोल उठते हैं
क्या बात है...
बेहद उम्दा ग़ज़ल है भईया...
सादर प्रणाम...
khubsurat nazm ....aabhaar
हमें अपनों से क्या लेना कहाँ ये काम आते हैं
मगर जो गैर होते हैं वो प्यारे बोल उठते है
बहुत ख़ूब!!!
तुम्हारा हाल कैसा है तुम्हारा मूड क्या कहता
रहो तुम मौन लेकिन ये नज़ारे बोल उठते हैं
बहुत खामोश रहते है यहाँ लाखों मगर सच है
समूचा देश जागे जब ''हजारे'' बोल उठते हैं
यथार्थपरक..... सुन्दर सार्थक.
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 05-09-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
बेहतरीन रचना
बेहतरीन रचना
behatarin dil ko choo gayi...bartmaan ke sach ko ujagar karta ek shandar pryas..hardi badhayee aaur apne blog per aane ka nimantran bhi
हमें अपनों से क्या लेना कहाँ ये काम आते हैं
मगर जो गैर होते हैं वो प्यारे बोल उठते है
अपनों और परायों का अर्थ विपर्यय...!
सच्ची बातों को स्वर देती हुई अच्छी ग़ज़ल।
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