बची रहे सम्वेदना की हरीतिमा
>> Friday, August 26, 2016
दाना मांझी,
तुम्हारे कंधे पर पत्नी का शव नहीं
मर चुके समाज की लाश है।
पत्नी की आत्मा तो सिधार गई परलोक
किन्तु कंधे पर छोड़ गई समाज का वो चेहरा
जो बताता है कि सम्वेदना अब केवल
सोशल मीडिया में विमर्श की चीज भर है।
शव को चार कन्धे भी नहीं मिलते
जब तक आत्मा को झकझोरा न जाए।
कालाहांडी में केवल भूखे नहीं मरते लोग
वहां सम्वेदना भी दम तोड़ रही है।
वैसे तो हर एक शहर और गाँव
खाली होता जा रहा है ...सम्वेदना की हरीतिमा से।
फिर भी सोचता हूँ इतना निर्मम तो नहीं बनेगा समाज
कि शव को भी न दे सके सम्मान।
धन्य हो दाना मांझी कि
दस किलोमीटर तक पत्नी की लाश ढोने के बाद
मिल गया एक वाहन तुम्हे।
वरना मरने ही वाला था समाज तुम्हारी चौखट पर
बच गया.....बचा लिया वाहन ने। थोड़ा-थोड़ा।
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दशरथ मांझी ने पत्नी के लिए
पहाड़ खोद कर बनाई थी सड़क
तुम पत्नी के शव को उठा कर
दस किलोमीटर तक चले।
पत्नी-प्रेम के अद्भुत उदाहरणों में
एक और अध्याय जुड़ गया
दाना मांझी।
4 टिप्पणियाँ:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "शब्दों का हेर फेर “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
संवेदनहीन होते इंसानों की भीड़ बढ़ती जा रही है ..
बेहद मर्मस्पर्शी
स्वयं को औरों से अधिक श्रेष्ठ समझनेवाले ऐसे ही संवेदनाहीन हो जाते हैं .
वह जिला अभिशप्त है ऐसी घटनाओं के लिये और यह समाज भी... ऐसी घटनाओं को देखते हुए लगता ही नहीं कि हम सभ्य समाज का अंग हैं. आपकी अभिव्यक्ति दिल को छूती है!
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